मेरी
छत पर कौआ क्यों नहीं आता ?
पितृओ के
श्राद्धके दिन शुरू हुए। मन्नू हररोज खीर ले कर छत पर
गया ,लेकिन कौआ आया ही नहीं।
मन्नुको सवाल उठा ,' मेरी छत पर कौआ क्यों नहीं आता ?' मित्रो भारतीय परम्परा अनुसार भाद्रप्रद
मास में श्राद्ध आते है..हमारे पितृओंके प्रति हम कृतज्ञता व्यक्त करते है। पितृओंको
याद करके कुछ दान-पूजा करते है। कौओको खीर खिलते है.अच्छी बात है। जिन माता पिता ,दादा दादी ,नाना
नानी और दूसरे दिवंगत स्वजनोको इस समय याद
करके श्रद्धापूर्वक श्रद्धांजलि देते है.| सहज रूपसे कई के मन में दो-चार सवाल
उठते होंगे | क्या
सचमुच हमारी खीर उनसे पहुंचती होगी ? क्या हमारी याद उनसे मिलती होगी? किसीके चले जाने
के ऐसा करनेकी आवश्यकता है ?
सभीका जवाब है-'हां " विष्वमे सबसे प्राचीन हमारी
भारतीय संस्कृतिमें जो भी निर्देश है वह ,बहोत दूरंदेशी से लिए गए ह| पहली बात हमारे
अंदर रही ;आत्मा
' कभी नहीं
मरती। भगवद गीता में स्वयं भगवान् ही
कहते है,"न
हन्यते ;हन्यमाने शरीरे। " –अर्थात आत्मा नष्ट नहीं
होता है,शरीर
नष्ट होता | सीधा मतलब है की
हमारे पितृ वैश्विक ब्रह्माण्ड में है ही तो सही | विज्ञानीओने साबित किया है की महाभारत
युद्धकी आवाज ,आज
भी अंतरिक्षमें गूंजती है | इसलिए
हमारी भावनाओ हमारे पितृओ के पास पहुंचती ही होगी ,कोई शंका नहीं |
दूसरा सवाल -कौए
को खीर ही क्यों ? उत्तर -प्रकृत्तिके सभी अंगोको समतोल
न्याय मिले, यह
हमारी इच्छा होती ही है | हम
कबूतर ,चिड़ियाको दाने
देने को सोचते है मगर कौए के बारेमे किसने सोचा ? शायद इसीलिए ही कौए को चुना गया हो | खीर किस लिए भाई ? देखो,श्राद्ध तो बारिस की मौसममें ही आते है | और इस मौसम में आदमीकी खुराक हजम
करनेकी क्षमता बहोत ही कम होती है |
अम्लपित्त {
Acidity } जैसी तकलीफ ज्यादातर को होती है | दूध अम्ल को
हजम करने के लिए सक्षम है | इसीलिए
ऋतुकी आवश्यकता अनुसार ही खुराक होना चाहिए ,यह तो हमारा आयुर्वेद भी कहता है |
हमारे हररोजके जीवनमे भी किसीने उपकार
किया है तो हम उसका बदला चुकाने के बारे में सोचते ही रहते है | आदमी का आदमी होने का लक्षण ही कृतज्ञता है | तो फिर
जिन्होंने हमें पाला -पोषा,पैर
पर खड़े होने को सिखाया ,जीवन
की दिशा दी | क्या
हम उसे भूल सकते है ? लेकिन फिर भी हकीकत यह है की दौड़ती
जिन्दगीमे ,समय
बीतता जाता है ,हम
अपने भूतकाल की स्मृति ,विगत
को पीछे
छोड़ते चलते है | श्रद्धांजलि विज्ञापन अखबारमें देना
अच्छी बात है फिर भी आख़िरकार तो समाज को
बताने के लिए ,अपने
नाम भी छपवानेनी मनसा भी साथमे होती है |
एक और सत्य यह भी है की पश्चिमकी संस्कृतिको हम बिना सोचे समजे अपनाते चले है | ३६५ दिन के बजाय एक ही दिन ' फादर्स डे -मदर्स डे ' मानते है , रक्षाबंधन शायद जायगा क्योंकि 'फ्रेंडशिप बेल्ट ' आ गया | सबंधो के भीतर जाने के बदले बाहरी दिखावा बढ़ता चला है | आज नहीं तो कल 'श्राद्ध'का भी वही हाल होगा| कोई माने या न माने बहोत से लोगोका अनुभव सिद्ध सत्य है की, पितृओ की और से पृथ्वीलोकसे जाने के बाद भी अपने सन्तानोने प्रति अमीदृष्टि रहती है | -शुभ आशीष बरसते ही रहते है | जैसे ईश्वर सच्चे मनुष्यको अदृश्य सहाय करता है वैसे ही पितृ भी हर अच्छे कार्यमे और सभी संघर्षमे साथ ही रहते है | -जीतनी श्रद्धा उतना फल | चलो ,पारम्पारिक रीतसे श्राद्ध ,सच्ची श्रद्धासे मनाये -अंतकरण से करे | साथ साथ हमारे पितृओं ने किये अच्छे कार्य याद करे ,उनके जीवन से आवश्यक बाते को -गुणों को जीवन में उतारनेकी कोशिश भी करे | अपने पितृओंके नाम को उज्जवल करनेकी दिशामे कुछ करके दिखाए | यही सच्चा श्राद्ध है |सच्चे दिलसे उसको तृप्त करे -तर्पण करे |अस्तु |
दिनेश मांकड़ - ९४२७९६०९७९
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